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सड़कों पर पली जिंदगियाँ और उनके सपने

बाल मजदूरी
बाल मजदूरी में लगे बच्चों की जिंदगी को संवारने के कई कोशिशें हो रही हैं लेकिन सब जरूरतमंद बच्चों तक पहुंचना आसान नहीं है.
भारत में बाल श्रम गैरकानूनी है और बच्चों से काम कराने वालों को कड़ी सजा का प्रावधान है.
इसके बावजूद बाल मजदूरी आम है. चार दीवारियों से घिरीं फैक्ट्रियों में ही नहीं, बल्कि खुले आम चल रहे ढाबे और चाय की दुकानों पर अकसर काम करते हुए बच्चे मिल जाते हैं.
ऐसे ही दो बच्चों ने नाम न छापने के आग्रह के साथ अपनी कहानी बीबीसी को बताई, जो इस वक्त दिल्ली में एक गैर सरकारी संगठन 'सलाम बालक ट्रस्ट' के बाल गृह में रहते हैं. उनकी अब तक की जिंदगी कई मुश्किलों से घिरी रही है लेकिन उनमें आगे कुछ करने का जज्बा भी है.

अपनों के होते हुए भी बेसहारा जिंदगी

मैं बागपत का रहना वाला हूं और मेरी उम्र अब 13 साल है. मैं बहुत छोटा था, तभी मेरे माता-पिता की मौत हो गई. हम रिश्तेदारों के होते हुए अनाथ हो गए. इसलिए होटल पर काम करना पड़ा. वहां प्लेट धोने का काम था. लेकिन जरा सी गलती हो जाए, तो बहुत मारा पीटा जाता था.
एक दिन मुझे डंडे से पीटा गया और मुझे बहुत चोट आई. इसलिए वहां से भागना पड़ा. फिर एक ट्रक वाला मुझे अपने पास ले गया. कुछ दिन उसने मुझे रखा, लेकिन एक दिन किसी बात पर नाराज होकर मुझे वहां से निकाल दिया.
ऐसा नहीं है कि हमारे घर पर रिश्तेदार नहीं हैं, लेकिन कोई हमारी जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता. हमारे चाचा थे लेकिन उन्हें शराब की लत थी. और हमारे साथ खूब मारपीट होती थी. सड़कों पर काफी समय यूं ही घूमते फिरते मैं और मेरा भाई, दोनों एक सेंटर में पहुंचे.
बाल मजदूरी विकासशील देशों में एक अहम समस्या है.
वहां कुछ दिन रहने के बाद हमें वापस अपने घर भेजा गया लेकिन फिर वही मारपीट होने लगी. इसलिए वापस सेंटर में आ गए. अब यही सेंटर हमारी जिंदगी और हमारा परिवार है. घर की कमी नहीं खलती.
जिंदगी मुश्किल है. मेरे भाई के अलावा मेरी एक बहन भी है. उसकी शादी हो गई. एक बार हम उससे मिले, उसने पूछा कि कहां रहते. मैंने उसे पूरा पता दिया लेकिन आज तक वो कभी हमसे नहीं मिलने आई.
इस सेंटर में हमें पढ़ाया जाता है और प्यार से रखा जाता है. अब मैं पढ़ाई करता हूं. सातवीं कक्षा में पढ़ता हूं. आगे चल कर मैं या तो ऐक्टर बनना चाहता हूं या फिर क्रिकेटर.
एक्टिंग में मुझे मारधाड़ बहुत पसंद है और अक्षय कुमार मेरे फेवरिट हीरो हैं. उनकी हाउसफुट 2 फिल्म मैंने देखी, बहुत अच्छी लगी. मैं भी ऐसा ही ऐक्टर बनना चाहता हूं. मैं यहां अपने सेंटर में थिएटर में हिस्सा लेता हूं.

नेपाल से दिल्ली तक का सफर

मेरी उम्र नौ साल है और मैं नेपाल का रहने वाला हूं. मेरी मां मुझे कोठी पर काम करवाने के लिए लुधियाना लेकर आई. मैं पांच छह महीने एक कोठी पर काम किया. फिर वहां से भाग गया और जब दोबारा घर पहुंचा तो मेरी मां ने पूछा कि क्यों भाग गया.
जिनके यहां मैं काम करता था, उन्होंने भी कहा कि इसके पैसे ले लो और हम इससे काम नहीं कराएंगे. इसके बाद मेरी मां ने मुझे दूसरी कोठी पर काम पर लगाया. वहां से भी मैं भाग गया लेकिन वहां से घर आने का रास्ता मुझे पता नहीं था.
घरों में बच्चों से अकसर कई तरह के काम लिए जाते हैं और उनके साथ वहां मारपीट भी होती है.
फिर मुझे एक बाबा ने पकड़ लिया. और वो मुझे दिल्ली लेकर आ गया. यहां लाकर उसने मुझे बोतल और कबाडा़ चुगने के काम लगा दिया. रोज मुझसे ये काम कराया जाता था. बस वो खाना खिलाते थे.
लेकिन मुझे वो काम बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था. उसने मुझसे कहा कि तू मुझे अपना पापा समझ और कोई पूछो तो कह देना कि मेरा पापा है. मैंने कई बार वहां से भागने की कोशिश की लेकिन पकड़ा जाता था.
फिर मैंने कबाड़ा खरीदने वाले को बताया कि ये बाबा मेरा पापा नहीं है और मुझे लुधियाना से पकड़ कर लाया हैं. ये सुनकर उन्होंने बाबा को बुलाया और खूब डांटा. और मुझे कबाड़ी अंकल ने चाइल्ड लाइन वाले के पास भेजा. वहां से मुझे यहां सेंटर पर लाया गया और अब मुझे यहां अच्छा लगता है.
अभी मैं यहां चौथी कक्षा में पढ़ता हूं. डांस करना और कराटे मुझे पसंद है. खेलों में मुझे फुटबॉल बहुत पसंद है. आगे चल कर या तो डांसर बनूंगा या फिर फुटबॉलर बनूंगा. लेकिन उसमें अभी बहुत समय पड़ा है. अभी कुछ नहीं कह सकता कि क्या बनूंगा.

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